रिश्तों की डोर में उलझता जीवन...!


रिश्तों की डोर में, उलझता जीवन..!

**********************

यदि, कुछ बांध सकते हो तो,

बहकते रिश्तों को बांध लो..!

सीमित है जिंदगी, श्वासें और पल,

प्रगति की आंधी में, हे..! पथिक

 खुद को संभाल लो ...!!

मत रोपो तुम नागफणी,

उन रिश्तों के खेतों में ।

जहांअंकुर,

प्रेम पल्लवित होते,

अभिलाषाओं के खेतों में ।।

अनिच्छा से थकी हारी जिंदगी,

जीने से तो अच्छा है,

वक़्त के क्रूर पंजों से "प्रचंड",

तुम पंजा लड़ालों,

क्या पता वो हार जाए,

और तुम्हारी जीत हो..?

गुज़रे ज़माने से ले सबक,

काश..! हाथों को ,फैलाए वो,

अपनी सूनी आंखो से कहरहा हो,

हे..! पथिक, तुम ही हमारे मीत हो ।।

रिश्तों की डोर तो,

वहीं कमज़ोर होती है।

जहां अपनेपन का,

आभास कराने में देर होती है।।

तब तलक न जाने,

कितने ही पानीदार,

पत्थरों को चीरकर,

मरुस्थल में खुद को,

दरिया बनाके प्यासो की प्यास को,

"प्रचंड" आस से बुझाते है।।


प्रस्तुति: प्रमोद तिवारी (प्रचंड राही)

संपादक - 

एशिया लाइट, लखनऊ।